मृदा मूल शैलों के विखण्डित पदार्थों से बनती है।
जिस मृदा में पौधे और फसलें आसानी से पैदा हो जाती
हैं, उसे उर्वर मृदा तथा जिसमें कोई भी पौधे नहीं उगते हों
उसे अनुर्वर या ऊसर मृदा कहा जाता है। सामान्यतः नदी-घाटियों की मिट्टी उपजाऊ होती
है।
इसके विपरीत पर्वतीय और पहाड़ी ढालों पर स्थित छिछली
और अनुपजाऊ मिट्टी खेती के लिये बहुत कम महत्त्व की होती है।
राज्य की मृदाएँ मिट्टी की विशेषता एवं कृषि के लिये
उसकी उपयुक्तता के अनुसार राजस्थान में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की मिट्टियों
का अध्ययन अग्र प्रकार किया जा सकता है
रेतीली/बलुई मिट्टी
शुष्क प्रदेश के जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर, नागौर, चुरू, झुंझुन
मोटा कण, नमी धारण की निम्न
क्षमता।
नाइट्रोजनी एवं कार्बनिक लवणों तथा जैविक अंश की
मात्रा की अल्पता तथा केल्शियम लवणों की अधिकता।
खरीफ की बाजरा, मोठ तथा मूंग की
फसल हेतु उपयुक्त
लाल दोमट मिट्टी या लाल
उदयपुर, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा तथा चित्तौड़गढ़
बारीक कण, नमी धारण की अद्भुत
क्षमता।
लोमी मिट्टी
नाइट्रोजन, फस्फोरस एवं
कैल्शियम लवणों की अल्पता तथा पोटाश एवं लौह तत्वों की अधिकता।।
मक्का की फसल हेतु उपयुक्त।
काली मिट्टी
राज्य के दक्षिणी-पूर्वी भाग कोटा, बूंदी, बाराँ एवं झालावाड़
बारीक कण, नमी धारण की उच्च
क्षमता।
फॉस्फेट, नाइट्रोजन एवं
जैविक पदार्थों की अल्पता तथा कैल्शियम एवं पोटाश की पर्याप्तता ।
कपास व नकदी फसलों हेतु उपयुक्त।
मिश्रित लाल काली मिट्टी
उदयपुर, चित्तौड़गढ़, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा
फॉस्फेट, नाइट्रोजन, कैल्शियम तथा कार्बनिक पदार्थों की अल्पता।
कपास तथा मक्का की फसल हेतु उपयुक्त।
मिश्रित लाल पीली मिट्टी
सवाईमाधोपुर, भीलवाड़ा, अजमेर, सिरोही
नाइट्रोजन, कैल्शियम एवं
कार्बनिक यौगिकों की अल्पता तथा लौह ऑक्साइड्स की बहुलता।
जलोढ़/कछारी मिट्टी
नदियों द्वारा बहाकर लाई जलधारण की पर्याप्त क्षमता व
अत्यधिक उपजाऊ गई मिट्टी
अलवर, भरतपुर, धौलपुर, जयपुर, टोंक, सवाईमाधोपुर कोटा, बूंदी
फॉस्फेट एवं कैल्शियम तत्वों की अल्पता तथा नाइट्रोजन
तत्वों की बहुलता।
गेहूँ, चावल, कपास तथा तम्बाकू के लिये उपयुक्त।
भूरी मिट्टी
भीलवाड़ा, अजमेर, टोंक, सवाईमाधोपुर
नाइट्रोजनी एवं फॉस्फोरस तत्वों का अभाव।
बनास के प्रवाह क्षेत्र की मृदा।
कृषि के लिये उपयुक्त।
सीरोजम मिट्टी /धूसर मरुस्थलीय मिट्टी /भूरी रेतीली मिट्टी
अरावली के पश्चिम में बांगड़ प्रदेश में पाली, नागौर, जालौर, झुंझुनूं तथा सीकर
रंग पीला भूरा।
उर्वरा शक्ति की कमी।
नाइट्रोजन व कार्बनिक पदार्थों व जैविक अंश की कमी।
लवणीय मिट्टी
गंगानगर, बीकानेर, बाड़मेर व जालौर
क्षारीय व लवणीय तत्वों की अधिकता के कारण अनुपजाऊ।
प्राकृतिक रूप से निम्न भू-भागों में उपलब्ध।
पर्वतीय मिट्टी
अरावली की उपत्यका में सिरोही, उदयपुर, पाली, अजमेर व अलवर, जिलों के पहाड़ी भागों में।
मिट्टी की गहराई कम होने के कारण खेती के लिए
अनुपयुक्त।
राजस्थान की मिट्टियों का नई पद्धति से वर्गीकरण: -
उपरोक्त दोनों वर्गीकरण के अतिरिक्त विश्व के समस्त
मृदा- वैज्ञानिकों का यह प्रयास रहा है कि मृदा का एक ऐसा वर्गीकरण हो जिसमें सभी
देशों की मिट्टियों को सहजता से समाविष्ट किया जा सके। परिणामस्वरूप, अमेरिकी कृषि विभाग के वैज्ञानिकों द्वारा कुछ वर्ष पूर्व ही एक नई पद्धति को
अन्तिम रूप दिया गया है। पूर्ण निरीक्षण के बाद अब उसे विश्व के सभी प्रमुख
मृदा-वैज्ञानिकों द्वारा स्वीकृत कर लिया गया है। इस नई पद्धति में मृदा की
उत्पत्ति के कारकों को आवश्यकतानुसार महत्त्व देते हुए अधिक महत्त्व मृदाओं के
मौजूदा-गुणों को दिया गया है। इसलिए विभिन्न क्षेत्रों, देशों तथा प्रदेशों की मृदाओं को निम्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्न हैं
एरिडीसोल्स (Aridisols)-
यह वह खनिज मृदा है जो अधिकतर शुष्क जलवायु में ही
पायी जाती है। चूरू, सीकर, झुंझुनूं,नागौर, जोधपुर, पाली और जालौर
जिलों के कुछ क्षेत्रों में ये मृदाएँ विस्तृत हैं।
इसका उपमृदाकण ऑरथिड है जिसके अंतर्गत केम्बोऑरथिडस, केल्सीऑरथिडस, सेलोरथिडस और पेलिऑरथिडस राजस्थान में पाये जाते हैं।
अल्फीसोल्स (Alfisols)-
जयपुर, दौसा, अलवर, भरतपुर, सवाईमाधोपुर, टोंक, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, बांसवाड़ा, राजसमन्द, उदयपुर, डूंगरपुर, बूंदी, कोटा, बाराँ और झालावाड़ जिलों का अधिकांश क्षेत्र इन मृदाओं से ढंका है। अल्फीसोल्स
की प्रोफाइल मध्यम से लेकर पूर्ण विकसित तक होती है। इन मृदाओं में ऑरजिलिक संस्तर
अवश्य उपस्थिति होते हैं जिनमें कि ऊपरी सतहों की तुलना में मटियारी मिट्टी की
प्रतिशत मात्रा अधिक होती है। इस का उपमृदाकरण केवल हेप्लुस्तालफस ही है जिसके
अन्तर्गत राज्य की अल्फीसोल्स मृदाकरण की सभी मृदाएँ आ जाती है।
एन्टिसोल्स-
एन्टिसोल ही एक ऐसा मृदावर्ग है जिसके अन्तर्गत
भिन्न-भिन्न प्रकार की जलवायु में स्थित मृदाओं का समावेश होता है।
पश्चिमी राजस्थान के लगभग सभी जिलों में इस समूह की
मृदाएँ पाई जाती हैं।
इनका रंग प्रायः हल्का पीला-भूरा होता है।
इसके दो उपमृदाकण है- सामेन्ट्स और फ्लूवेन्टस।
सामेन्ट्स (Psamments) के कई वृहत वर्ग
हैं जिनमें से केवल टोरीसामेन्ट्स (Torripsamments) में राज्य की
मृदाओं का समावेश होता है।
फ्लूवेन्टस के दो वृहत वर्ग हैं- 1. टोरीफ्लूवेन्ट्स 2. उस्टीफ्लूवेन्ट्स जिनमें राज्य की कुछ मृदाओं का
समावेश होता है।
इनसेप्टीसोल्स- अर्द्धशुष्क से लेकर आई जलवायु तक
कहीं भी ये मृदाएँ पाई जा सकती हैं लेकिन शुष्क जलवायु में कभी नहीं पाई जाती हैं।
ये मृदाएँ सिरोही, पाली, राजसमन्द, उदयपुर, भीलवाड़ा और
चित्तौड़गढ़ जिलों में विस्तृत हैं। इनके अतिरिक्त इस किस्म की मृदाएँ जयपुर, दौसा, अलवर, सवाईमाधोपुर और
झालावाड़ जिलों की जलोढ़ मृदाओं के मैदान में भी कहीं-कहीं पाई जाती हैं। इस
मृदाकण के एक वृहत वर्ग उस्टोक्रेप्ट्स के अन्तर्गत राज्य की मृदाएँ सम्मिलित हैं।
वर्टीसोल्स-
ये मृदाएँ झालावाड़, बारां, कोटा तथा बून्दी जिलों के अधिकतर क्षेत्रों में विस्तृत हैं। इनके अन्तर्गत
कुछ क्षेत्र सवाईमाधोपुर, भरतपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और चित्तौड़गढ़ जिलों में भी है।
इनमें अत्यधिक क्ले उपस्थित होने से मटियारी मृदा की
सभी विशेषताएँ भी वर्टीसोल्स में पायी जाती हैं। वर्टीसोल्स के उस्टर्टस के अन्तर्गत
राज्य में स्थित इस किस्म की सभी मृदाएँ आती हैं जो कई वृहत वर्गों में विभाजित
हैं परन्तु इनमें से पेल्युस्टर्टस् और क्रोमस्टर्टस् का राज्य में विशेष महत्त्व
है।
मृदा अपरदन
मृदा के आवरण का विनाश मृदा अपरदन कहलाता है। मिट्टी
के अपरदन को 'रेंगती हुई मृत्यु' (Creeping Death)कहा जाता है। बहते
जल और पवनों की अपरदनात्मक प्रक्रियाएँ तथा मृदा निर्माणकारी प्रक्रियाएँ साथ-साथ
घटित हो रही होती हैं। सामान्यतः इन दोनों प्रक्रियाओं में एक संतुलन बना रहता है।
धरातल से सूक्ष्म कणों के हटने की दर वही होती है जो मिट्टी की परत में कणों के
जुड़ने की होती है। कई बार प्राकृतिक अथवा मानवीय कारकों से यह संतुलन बिगड़ जाता
है, जिससे मृदा के अपरदन की दर बढ़ जाती है। मृदा अपरदन
के लिए मानवीय गतिविधियाँ भी काफी हद तक उत्तरदायी हैं। मानव बस्तियों, कृषि, पशुचारण तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वन तथा
अन्य प्राकृतिक वनस्पति साफ कर दी जाती है। मृदा अपरदन के प्रकारः मृदा को हटाने
और उसका परिवहन कर सकने के गुण के कारण पवन और जल मृदा अपरदन के दो शक्तिशाली कारक
हैं
पवन द्वारा अपरदनः पवन द्वारा अपरदन शुष्क और अर्ध-शुष्क प्रदेशों में
महत्त्वपूर्ण होता हैं। इस प्रकार के अपरदन में वायु द्वारा मिट्टी काटकर एक स्थान
से दूसरे स्थान पर ले जाकर बिछा दी जाती है। इस क्रिया द्वारा धरातल की ऊपरी परत
का अपरदन होता रहता है और कालान्तर में यह क्षेत्र अनुपजाऊ बन जाते हैं। इसके
अतिरिक्त तेज वायु बहुधा जोते और बोये खेतों पर बालू की परत जमा देती है जिसके
फलस्वरूप फसलों के बीज अंकुरित नही हो पाते।
जल द्वारा अपरदनः भारी वर्षा और खड़ी ढालों वाले प्रदेशों में बहते जल द्वारा किया गया अपरदन
महत्त्वपूर्ण होता है। जल-अपरदन अपेक्षाकृत अधिक गंभीर है और यह भारत के विस्तृत
क्षेत्रों में हो रहा है । जल-अपरदन निम्न रूपों में होता है परत अपरदन समतल
भूमियों पर मूसलाधार वर्षा के बाद होता है। जब घनघोर वर्षा के कारण निर्जन
पहाड़ियों की मिट्टी जल में घुलकर बह जाती है तो इसे भूमि का परत या आवरण अपरदन
कहते हैं । यह अधिक हानिकारक है क्योंकि इसमें मिट्टी की सूक्ष्म और अधिक उर्वर
ऊपरी परत हट जाती है।
अवनालिका अपरदन सामान्यतः तीव्र ढालों पर होता है। वर्षा से गहरी हुई अवनालिकाएँ कृषि भूमियों को
छोटे-छोटे टुकड़ों में खंडित कर देती हैं जिससे वे कृषि के लिए अनुपयुक्त हो जाती
हैं। जिस प्रदेश में अवनालिकाएँ अथवा बीहड़ अधिक संख्या में होते हैं उसे 'उत्खात भूमि स्थलाकृति' कहा जाता है। चंबल नदी की द्रोणी में बीहड़ बहुत
विस्तृत है। इसके अतिरिक्त ये तमिलनाडु और पश्चिमी बंगाल में भी पाए जाते हैं।
रिल या क्षुद्र सरिता अपरदन (Rill Erosion): इसमें मृदा की सतह पर जल के प्रवाह द्वारा उँगलियाँ
जैसे गड्ढों का निर्माण किया जाता हैं।
मृदा अपरदन के कारण -
वनोन्मूलनः वनोन्मूलन, मृदा अपरदन के प्रमुख कारणो में से एक है। पौधों की
जड़ें मृदा को बाँधे रखकर अपरदन को रोकती हैं। पत्तियाँ और टहनियाँ गिराकर वे मृदा
में ह्यूमस की मात्रा में वृद्धि करते हैं। वनों के विनाश से मृदा का वायु व जल
अपरदन शीघ्रता से होता है। अर्द्धशुष्क व चरागाह क्षेत्रों में रहने वाले निवासी
भेड़-बकरी आदि पशुओं को पालते रहे हैं जो भूमि की वनस्पति को अंतिम बिंदु तक चरकर
उसे समाप्त कर देते हैं। यह ढीले भाग जल अथवा मिट्टी के वेग के साथ बहकर भूमि को
अनुपजाऊ बना देते हैं। अनेक क्षेत्रों के पहाड़ी ढ़ालों पर विशेषतः असम, नागालैंड, मेघालय, दक्षिणी -पूर्वी
राजस्थान,निचले हिमालयी क्षेत्रों आदि में आदिवासियों द्वारा
झूमिंग या वालरा कृषि अथवा टोंग्या खेती के अंतर्गत वनों को काटकर कृषि योग्य
बनाया जाता था। इससे भी नग्न भूमि का तेजी से क्षरण होने लगता है। वर्षा पूर्व
मरूस्थलीय अंधड़ भी मृदा अपरदन का एक कारण है। अति सिंचाई: भारत के सिंचित
क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि का काफी बड़ा भाग अति सिंचाई के प्रभाव से लवणीय
होता जा रहा है। मृदा के निचले संस्तरों में जमा हुआ नमक धरातल के ऊपर आकर उर्वरता
को नष्ट कर देता है।
रासायनिक उर्वरकः रासायनिक उर्वरक भी मृदा के लिए हानिकारक हैं। जब तक मृदा को पर्याप्त ह्यूमस
नहीं मिलता, रसायन इसे कठोर बना देते हैं और दीर्घकाल में इसकी
उर्वरता घट जाती है। यह समस्या नदी घाटी परियोजनाओं के उन सभी समादेशी क्षेत्रों
में अधिक है, जो हरित-क्रांति केआरंभिक लाभ भोगी थे।
कृषि के अवैज्ञानिक ढंग अपनाकर भी कृषक
स्वयं मिट्टी के क्षरण को बढ़ाता है। ढालू क्षेत्र में समोच्च रेखाओं से समान्तर
जुताई न करने से,
दोषयुक्त फसल चक्र (Rotation of Crops) अपनाने से या आवरण फसलें (Cover Crops) गलत तरीके से बोने से मिट्टी का क्षरण
बढ़ता है
मृदा अपरदन से हानियाँ:
विभिन्न प्रकार से होने वाले मृदा अपरदन
से मुख्यत: निम्न हानियाँ होती है।
मृदा की उर्वर ऊपरी सतह का हास होने से
धीरे-धीरे मृदा की उर्वरता एवं कृषि उत्पादकता में कमी आती है। भू-स्खलन की
बारंबारता में वृद्धि एवं भीषण तथा आकस्मिक बाढ़ों का प्रकोप। सूखे की लम्बी अवधि
जिसका प्रभाव नहरों पर पड़ता है। नदियों की तह में बालू का जम जाना जिससे नदी की
धारा में परिवर्तन होता रहता है और नहरों तथा बन्दरगाहों का मार्ग अवरूद्ध हो जाता
है। उच्च कोटि की भूमि नष्ट हो जाने से कृषि का उत्पादन कम हो जाता है।
गड्ढों से होने वाले भूमि क्षरण तथा नदियों
के किनारे के भूमि क्षरण से खेती योग्य भूमि में कमी पड़ने लगती है।
मृदा संरक्षण के उपायः
मृदा संरक्षण एक विधि है, जिसमें मिट्टी की उर्वरता बनाए रखी जाती है, मिट्टी के अपरदन और क्षय को रोका जाता है और मिट्टी की
निम्नीकृत दशाओं को सुधारा जाता है। मृदा संरक्षण के निम्न उपाय किये जा सकते हैं:
ढालों की कृषि योग्य खुली भूमि पर खेती को रोका जाना
चाहिए। 15 से 25 प्रतिशत ढाल प्रवणता वाली भूमि का उपयोग कृषि के लिए नहीं होना
चाहिए। यदि ऐसी भूमि पर खेती करना जरूरी भी हो जाए तो इस पर सावधानी से सीढ़ीदार
खेत बना लेने चाहिए। भारत के विभिन्न भागों में, अति चराई और स्थानांतरी कृषि ने भूमि के प्राकृतिक आवरण को
दुष्प्रभावित किया है, जिससे
विस्तृत क्षेत्र अपरदन की चपेट में आ गए हैं। अति चराई और स्थानांतरी कृषि को
नियमित और नियंत्रित करना चाहिए। स्थानान्तरित कृषि के स्थान पर वेदिका कृषि को
प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
अवनालिका अपरदन को रोकने तथा उनके बनने पर नियंत्रण के
प्रयत्न किए जाने चाहिए। अंगुल्याकार अवनालिकाओं को सीढ़ीदार खेत बनाकर समाप्त
किया जा सकता है। बड़ी अवनालिकाओं में जल की अपरदनात्मक तीव्रता को कम करने के लिए
'रोक बाँधों' की एक श्रृंखला बनानी चाहिए। अवनालिकाओं के शीर्ष की ओर फैलाव
को नियंत्रित करने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। यह कार्य अवनालिकाओं को बंद
करके, सीढ़ीदार खेत बनाकर अथवा आवरण वनस्पति
का रोपण करके किया जा सकता है।
शुष्क और
अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में कृषि योग्य
भूमि पर बालू के टीलों के प्रसार को वृक्षों की रक्षक मेखला बनाकर' तथा 'वन्य कृषि
करके' रोकने के प्रयास करने चाहिए।
कृषि के लिए अनुपयुक्त भूमि को चरागाहों में बदल देना चाहिए।
वृक्षारोपण: पहाड़ी ढालों पर बंजर भूमि में और नदियों के किनारे उपयोगी
वृक्षारोपण किया जाय तथा पशुओं की चराई पर नयन्त्रण रखा जाए। कम पानी वाले
क्षेत्रों में ढालू भागों की ओर बक्सेनुमा गड्ढे बनाकर वृक्षारोपण किया जाए। वृक्ष
न सिर्फ मृदा की ऊपरी उर्वर परत को जल द्वारा बहाये जाने या हवा द्वारा उड़ाए जाने
से रोकते हैं,
बल्कि वे जल के रिसाव की बेहतर
व्यवस्था करके मृदा में नमी और जलस्तर को भी बनाए रखने में सहायक होते हैं।
जोते हुए क्षेत्रों के रक्षात्मक आवरण बनाए रखने के लिए फसलों
का हेर-फेर (Rotation
of Crops)और भूमि कुछ समय के लिए परती (fallow)तथा खुली रखना वांछनीय है। यह हेर-फेर
दो-फसली या तीन-फसली हो सकता है, जिससे एक
फसल द्वारा नष्ट किये गये रासायनिक तत्वों की पूर्ति दूसरी या तीसरी फसल से पूरी
की जा सके। वैज्ञानिक फसल चक्रण पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
वृक्षों की कटाई पर प्रतिबंधः वृक्षारोपण
के अलावा वृक्षों की निर्बाध कटाई को नियंत्रित किया जाना आवश्यक है। चिपको आंदोलन
जैसे जनजागरूकता अभियानों द्वारा वृक्ष और वनों के महत्त्व को प्रचारित किया जाना
चाहिए।
समोच्च जुताई और पट्टी कृषिः पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में ढाल की
दिशा के समरूप ऊपर नीचे जुताई नहीं की जानी चाहिए बल्कि वहाँ समोच्च रेखा (Contour) के अनुरूप जुताई को प्रोत्साहित किया
जाना चाहिए। इसी प्रकार साधारण ढाल वाले कृषि क्षेत्रों पर कृषि कार्य के लिए
खेतों की छोटी पट्टियाँ (Strips)विकसित की
जा सकती हैं ताकि मृदा अपरदन को नियंत्रित किया जा सके।
दीर्घ परती भूमि की पुनः स्थापनाः दीर्घ परती भूमि मुख्यतः आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, बिहार, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में विद्यमान हैं। इन्हें कृषि
कार्यो, चरागाहों और फलोद्यानों के रूप में पुनः
स्थापित करने से यहाँ होने वाले निर्बाध जल और वायु अपरदन की प्रक्रियाओं को रोका
जा सके।
नहरों की लाइनिंगः नहरों से होने वाले जल रिसाव को रोकने
के लिए नहरों की लाइनिंग का कार्य किया जाना चाहिए ताकि निम्न भागों में जलमग्नता
को रोका जा सकता है।
लवणीय व
क्षारीय मृदाओं का उद्धारः लवणों से
प्रभावित मृदाओं के लिए गोबर और जिप्सम का प्रयोग काफी उपयोगी है। जैविक उर्वरकों
एवं वानस्पतिक खाद के उपयोग में वृद्धि करना।
मानव अवशेषों एवं शहरी कचरों को खाद में परिवर्तित करना।
सतत पोषणीय कृषि (Sustainable Agriculture)की तकनीक को अपनाना।।
बहते हुए जल का वेग रोकने के लिए खेतों में मेड़बंदी करना, ऊंची भूमि पर पतली खेती और मैदानों में टेढ़ी-मेढ़ी खेती की
पद्धति अपनाना आवश्यक है जिससे जल का बहना स्ककर उपजाऊ मिट्टी वहीं पड़ी रहे। बहते
हुए जल की मात्रा और भारीपन में कमी करना आवश्यक है। इसके लिए पहाड़ियों के ढाल पर
अथवा ऊँचे-नीचे क्षेत्र में बहते हुए जल का संग्रह करने के लिए छोटे-छोटे तालाबों
का बनवाना आवश्यक है।
बाढ़ के समय नदियों का अतिरिक्त जल रोक रखने के लिए विशाल जलाशय अर्थात् जल
सम्भरण( Water
Sheds) तैयार कराये जाएँ एवं चैक-डैम्स (Check dams)बनाये जाएँ।
खेतों पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर ऐसे एनीकट
(anicut) बनवाये जाएँ जो एकत्रित जल को अनेक भागों में बाँटकर जल का .
वेग कम कर दें। इससे उस भूमि की उपजाऊ मिट्टी बहकर जाने से रुक जायेगी। ऐसे सभी
क्षेत्रों की सीमा पर उपलब्ध भूमि की नमी से वहाँ वृक्षारोपण किया जाना चाहिए। जो
मिट्टी जल द्वारा कट गयी है उसे रोकने के लिए खेतों के ढाल की ओर आड़ी खाइयाँ
बनायी जाएँ।
देश के सभी भागों में गांव, कस्बों, नहरों के
बाहर पशुओं के चराने के लिए निश्चित भूमि में चरागाहों का विकास किया जाए। उन्हें अन्य क्षेत्रों में भटकने से रोका जाय तथा
उन्हें चरागाहों में चराया जाय।
जल द्वारा होने वाली मिट्टी के क्षरण को
रोकने हेतुः
भूमि को जोतने के बाद उसे वनस्पति से
ढककर तेज बूंदों के आघात से बचाया जा सकता हैं। भूमि पर ही पड़ी रहने वाली वनस्पति
को स्वतः सड़ने दिया जाए जिससे भूमि की जल-ग्रहण करने की क्षमत में वृद्धि होकर
मिट्टी का कटाव रूक सकेगा। खेतों में लगातार पौधे या दालें बोने से भी मिट्टी का
कटाव रूकेगा।
वायु द्वारा किये जाने वाले क्षरण को
रोकने के लिए: - उन खादों
अथवा रसायनों एवं मल्च (Mulch)का प्रयोग
किया जाय जिनसे भूमि की जल-ग्रहण शक्ति बढ़ती है और भूमि चिपचिपी हो जाती है।
बोये और बिना बोये हुए खेतों को
बारी-बारी से काम में लाया जाये जिससे बोये हुए खेतों की ढीली भुरभुरी मिट्टी,जो वायु द्वारा उड़ायी जाये, दूसरे खेत में एकत्रित हो जाये और मिट्टी का नष्ट होना रुक जाए।
मरुस्थलीय क्षेत्र में मिट्टी को उड़ने
से रोकने के लिए 11/, -2 मीटर ऊँची लोहे की चादरें वायु चलने की दिशा
में लगा दी जाएँ। इससे उड़ती हुई मिट्टी रूक जाती है। इन बालुका स्तूपों में
वनस्पति लगायी जायेोत्रों में मिट्टी को उड़ने से रोका जा सके तथा नदी के किनारों
पर मिट्टी के कटाव को रोका जा सके।
मरुस्थलीकरण (Desertification)
मरुस्थलीकरण उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा
किसी भू-भाग में रेगिस्तान या मरुभूमि का निर्माण या विस्तार होता है। वनों की
अनियंत्रित कटाई व पशुधन की अधिकता से भूमि पर जैविक दबाव पड़ने से मरुस्थलीकरण को
बढ़ावा मिलता है । मरुस्थलीकरण एक क्रमबद्ध परिघटना है, जिसमें मानव द्वारा भूमि उपयोग पर दबाव के कारण परिवर्तन होने से पारितन्त्र
का अवनयन होता है। यह एक ऐसा प्रक्रम है जिससे उर्वर भूमि शुष्क, अनुर्वर मरुभूमि में बदल जाती है। मैन (Mann) के अनुसार "मरुस्थलीकरण जलवायवीय, मृदीय तथा जैविक कारकों की अन्तक्रिया से उत्पन्न
होता है।"
मरुस्थलीकरण एक प्राकृतिक परिघटना है जो जलवायवीय
परिवर्तनों या दोषपूर्ण भूमि उपयोग के कारण होती है। वस्तुतः जलवायवीय कारकों की
अपेक्षा अनुचित भूमि उपयोग इसके लिए अधिक उत्तरदायी है। वनस्पति आवरण को हटाने से
किसी क्षेत्र की स्थानीय जलवायु में परिवर्तन हो जाते हैं। वन-विनाश, अतिचारण आदि क्रियाओं से मृदा अपरदन के साथ-साथ वर्षा, तापमान, पवन वेग आदि में भी परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन
किसी क्षेत्र में मरुस्थलीकरण के रूप में परिलक्षित होते हैं।
विश्व का लगभग 35 प्रतिशत क्षेत्र
मरुस्थलों एवं अर्द्ध मरुस्थलों के अन्तर्गत है। निरन्तर वर्षा की कमी एवं प्रभावी जल व्यवस्था के अभाव में मरुस्थलों का
प्रसार निरन्तर बढ़ता जा रहा है, जिससे मरुस्थलों की
निकटवर्ती उपजाऊ भूमि भी इसकी चपेट में आ रही है। अर्द्ध मरुस्थलीय क्षेत्रों में
जहाँ वर्षा आधारित कृषि (Rain-fed farming) होती है, सिंचाई की सुविधाओं के अभाव में मरुस्थलों के प्रसार का अधिक संकट होता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार
अविवेकपूर्ण मानवीय क्रियाओं ने 1.30 करोड़ वर्ग
किलोमीटर क्षेत्रफल में मरुस्थलीय भूमि पैदा कर दी है।
वैज्ञानिकों के अनुमान में 20वीं शताब्दी के अन्त तक सहारा मरुस्थल का विस्तार 20 प्रतिशत बढ़ गया है। इसी प्रकार थार मरुस्थल भी प्रतिवर्ष 13000 एकड़ भूमि को निगल लेता है। दजला और फरात
नदियों का भाग जो कभी प्राचीन सभ्यता का पालना था, अब नमकीन मरुस्थल
में परिवर्तित होता जा रहा है।
भारत में शुष्क प्रदेश का विस्तार मुख्यतः राजस्थान, गुजरात तथा आन्ध्र प्रदेश व कर्नाटक में हैं। अतिचारण के कारण भूमि पर अधिक दबाव तथा संसाधनों के अतिदोहन के कारण पर्यावरण
का अवनयन हो रहा है। मरुस्थलीय क्षेत्र की वृद्धि मरुस्थलीय क्षेत्रों में सिंचित
भूमि की लवणता में वृद्धि, रिसाव तथा सेम की समस्या के रूप में प्रकट हो रही है।
प्राकृतिक संसाधनों के कुप्रबन्धन के कारण पोषण
चक्रों के भंग होने की प्रक्रिया तथा मिट्टी का सूक्ष्म जलवायवीय संतुलन भंग होने
की प्रक्रिया तीव्र हो गयी है, जिसका दुष्परिणाम
मरुस्थलीकरण के रूप में उभर रहा है। भारत में कुमायूँ की हरी-भरी पहाड़ियाँ अवनयन
के मार्ग पर हैं। वहाँ पहाड़ी झरने तथा स्रोत सूख रहे हैं, नदियों व जलधाराओं में जल-प्रवाह की मात्रा भी कम हो गयी है। हिमालय में वन-विनाश
जनसंख्या की विस्फोटक वृद्धि से जुड़ा है। राजस्व बढ़ाने वाली तथा लुग्दी व माचिस
उद्योग के कच्चे माल के लिए वन-विनाश के कारण मृदा अपरदन बढ़ गया है। इन सब कारणों
से इस क्षेत्र में वर्षा की कमी हो गयी है, जिससे मानव तथा पशु
स्वास्थ्य पर भी दुष्प्रभाव पड़े हैं। जल की कमी से अनेक रोगों में वृद्धि हो गयी
है। सूखे की समस्या तो अस्थायी है किन्तु मरुस्थलीकरण स्थायी होता है।
मरुस्थलीकरण को रोकने के उपायः
सिंचाई के साधनों का विकास किया जाना चाहिए ताकि
जलाभाव की समस्या दूर हो सके व अधिकाधिक वृक्षारोपण किया जा सके।
मरुभूमि के अनुकूल वृक्षों जैसे खेजड़ी, कीकर, रोहिड़ा, जोजोबा, नीम, बोरड़ी, फोग आदि की खेती को
प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
सूखी खेती को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए तथा सिंचाई
व फव्वारा सिंचाई का उपयोग किया जाना चाहिए।
पशुओं की चराई को नियंत्रित किया जाना चाहिए।
ऊर्जा के वैकल्पिक व पुननवीकरणीय स्रोतों का विकास
किया जाना चाहिए ताकि कोयले व जलाने की लकड़ी की बचत कर जंगलों को कटने से रोका जा
सके।
बालुका स्तूपों के स्थिरीकरण के उपार्य किये जायें।
अतिचारण पर
नियन्त्रण हो।
उपलब्ध भमिगत जल
संसाधनों का समचित उपयोग
राष्ट्रीय जल
विभाजन कार्यक्रम को तीव्र बनाना।
जिला नागरिक चेतना पैदा करना
महत्त्वपूर्ण तथ्य
मरुथलीकरण का मुकाबला करने के लिए
संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCCD) गठित किया
गया है। भारत यूएनसीसीडी का हस्ताक्षरकर्ता देश है।
17 जून- मरुस्थलीकरण का सामना करने के लिए
विश्व दिवस
(WDCD-World Day to Combat Desertification)।
रेगिस्तान की मार्च (March of Desert)- जब रेगिस्तान किन्हीं कारणों से आगे बढ़ता है, तो उसे रेगिस्तान की मार्च कहते है।
सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान - माउण्ट आबू
सबसे गर्म महीना - जून
न्यूनतम वर्षा वाला स्थान - जैसलमेर
सबसे ठंडा महीना - जनवरी
सर्वाधिक वर्षा वाला जिला - झालावाड़
आर्द्रता : वायु में उपस्थित जलवाष्प की
मात्रा को आर्द्रता कहते है।
आपेक्षिक आर्द्रता मार्च-अप्रेल में
सबसे कम व जुलाई-अगस्त में सर्वाधिक होती है।
'लू' : मरुस्थलीय
भाग में चलने वाली शुष्क व अति गर्म हवाएँ 'लू' कहलाती हैं।
समुद्र तल से ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान
घटता है। इसके घटने की सामान्य दर हर 165 मीटर की
ऊँचाई पर 1° से.ग्रे. है।
राजस्थान के उत्तरी-पश्चिमी भाग से
दक्षिणी-पूर्वी की ओर तापमान में कमी दृष्टिगोचर होती जाती है।
टाँकाः राजस्थान में मारवाड़ व शेखावाटी
क्षेत्रों में वर्षा जल को एकत्रित करने हेतु दुर्गों व घरों में बनाये गये
जलकुण्ड। इस पानी को वर्षभर प्रयोग में लिया जाता है। यह पानी पालर पानी' कहलाता है।
हिंद महासागर से द. पूर्वी व्यापारिक
पवनों के साथ आने वाली आर्द्रता युक्त पवनें भूमध्य रेखा पार करने के बाद 'दक्षिणीपश्चिमी मानसूनी पवनों' के नाम से जानी जाती हैं जो भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति के कारण दो
शाखाओं- (i) बंगाल की खाड़ी का मानसून एवं (ii) अरब सागर की मानसूनी पवनों में विभक्त हो जाती हैं। ये दोनों
शाखाएँ
भारत में वर्षा करती हैं।
राजस्थान में मिट्टी का अवनालिका अपरदन
(Gully
Erosion) सर्वाधिक चम्बल नदी से होता है।
राज्य में बीहड़ भूमि का सर्वाधिक
विस्तार धौलपुर जिले में है तथा फिर सवाई माधोपुर एवं करौली जिलों में है।
भूरी दोमट मिट्टी लूनी बेसिन में पाई
जाती है।
जल द्वारा मिट्टी अपरदन मुख्य रूप से
दक्षिण एवं पूर्वी जिलों में अधिक होता है।
राज्य में अरावली पर्वतीय क्षेत्रों में
मृदा-अपरदन के प्रमुख कारण वनों का विनाश, अत्यधिक
पशु चारण एवं अविवेकपूर्ण कृषि है तथा पश्चिमी मरुस्थलीय जिलों में मिट्टी अपरदन
का मुख्य कारण वायु है।
राजस्थान में वायु अपरदन से प्रभावित
भूमि का क्षेत्रफल सर्वाधिक है। उसके बाद जल अपरदन से प्रभावित भमि आती है।
पाला पड़नाः शीत ऋतु में उत्तरी भारत के पहाड़ी भागों में बर्फ गिरने व शीत
पवनों के चलने से राजस्थान में रात्रि का तापमान हिमांक बिन्दु तक चले जाने से
पानी जम जाता है जिससे फसलें नष्ट हो जाती हैं। इसे ही पाला पड़ना कहते हैं।
जोहड़ या नाड़ा : शेखावाटी व बांगड़ क्षेत्र में जल
प्राप्ति हेतु निर्मित्त कच्चे एवं पक्के कुओं को स्थानीय भाषा में जोहड़ या नाड़ा
के नाम से जाना जाता है।
भभूल्या: राजस्थान में छोटे क्षेत्र में उत्पन्न वायु भंवर (चक्रवात) को
स्थानीय स्तर पर भभूल्या कहते हैं।
पुरवइया : बंगाल की खाड़ी से आने वाली दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी हवाओं को
राजस्थान की स्थानीय भाषा में पुरवइया (पुरवाई) कहते हैं।
मिट्टी में लवणीयता की समस्या कम करने हेतु रॉक फॉस्फेट का प्रयोग
किया जाता है। धमासा (टेफ्रोसिया परपुरिया) व सुबबूल (ल्युसियाना ल्यूकोसेफेका)
आदि खरपतवार को मिट्टी में मिलाने से भी यह समस्या कम हो सकती है।
मिट्टी की क्षारीयता की समस्या दूर करने हेतु ग्वार एवं ढेंचे की फसल
को काटकर खेत में ही दबा देते हैं अथवा जिप्सम का प्रयोग किया जाता है
मिट्टी के उपजाऊपन को बनाये रखने हेतु लाभदायक सूक्ष्म जीवों एवं केंचुओं को
संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।
सर(सरोवर): रेगिस्तानी क्षेत्र में बालुकास्तूपों के मध्य पाई जाने वाली नीची भूमि में
वर्षा का पानी एकत्र होने से तालाब का रूप ले लेता है इसे स्थानीय भाषा में 'सर' कहते हैं
जैसे- जसूसर, मानासर, मलूसर आदि।
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